Thursday, October 9, 2008

क्या हम धर्म निरपेक्ष हैं

मित्रों
नमस्कार
देखिये लोकतंत्र की तरह ही सेकुलरिस्म भी इस देश की शान बन कर उभरा था जब हमें आजादी मिली थी।
आज इसके मायने हर राजनितिक दल के लिए अलग अलग हैं
बल्कि यह कहिये की प्रत्येक नागरिक के लिए अलग अलग ही ।
मेरे लिए इसके मायने यह है की मैं धर्म अपनी पसंद का अपने निजी जीवन में किसी भी प्रकार से पालन कर सकता हूँ। मेरे लिए धर्म या विश्वास मेरी निजी चीज है और राज्य को या किसी अन्य व्यक्ति को इस में धक्हल देने का हक नहीं है । मेरे लिए मेरा धार्मिक विश्वास सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए नहीं है और न ही यह कोई चर्चा का विषय है।
परन्तु मुझे लगता है की आज जो धर्म के नाम पर जो दुनिया भर में उठा पटक जो हो रही है उसके पीछे सबसी बड़ी वजह धार्मिक विश्वास का सार्वजनिक प्रदर्शन है।
शायद धर्म का सार्वजनिक रूप या दूसरी भाषा में कहिये तो धर्म को जो चौराहे पर लाया गया है उसके पीछे उन धर्मों का योगदान है जिन्होंने प्रोपोगंडा या भोंडे प्रदर्शन को ही धार्मिक उपासना माना hई ।
परन्तु आज दुनिया के सबसे प्राचीन और सहिष्णु धर्म भी इस प्रोपोगंडा बाजी या कहिये सार्वजनिक रूप से धर्म की उपासना की राह अपनाता है ।
यहीं से समस्या शुरू होती है एक व्यक्ति का पब्लिक शो अपने धार्मिक मत के बारे में दूसरे व्यक्ति को अपने धार्मिक मत पर अतिक्रमण लगता है।
इसलिए हमें धर्म को निजता के दायरे में रखना चाहिए न की इसे सड़क पर ला कर रख देना चाहिए।
शायद यहीएक छोटा सा तरिका है धर्मनिरपेक्षता को उसके असली मायने में अपनाने का।


Tuesday, October 7, 2008

लोकतंत्र बदल गया भीड़तंत्र

दोस्तों
नमस्कार
पिचले कुछ दिनों से मुझे एक बात बहुत सताती है की क्या आजादी के ६० साल बाद क्या हमारा लोकतंत्र सही दिशा में जा रहा है । दोस्तों लोकतंत्र की सबसे बड़ी खासियत थी या कहिये की है की इसमें साधारण से साधारण व्यक्ति की भी आवाज बुलंद है और किसी भी विषय पर किसी भी मुद्दे का निराकरण गुन और दोष के आधार पर होगा।
परन्तु आज देखने को लगता है किजो भीड़ कहे या करे वाही सही है । जिसके साथ भीड़ है वाही सही है। जाहिर है कि शिक्षित संस्कारवान लोगों कि भीड़ तो कभी जुटेगी हे नहीं । अतः जब भी कोई भी भीड़ इकट्ठी होगी तो वोह अशिक्षित या कम शिक्षित व उन लोगों कि इकट्ठी होगी जो कि ताक़त और शोर से अपनी बात या अपने कार्य को सही साबित करते हैं।